post
post
post
post
post
post
post
post
post
post

जब दो रूपये के लिए बिंदेश्वरी जी को याद किया

Public Lokpal
August 15, 2023

जब दो रूपये के लिए बिंदेश्वरी जी को याद किया


आज 15 अगस्त 2023 को सुलभ जीवन देने वाले बिंदेश्वरी जी इस संसार को छोड़कर ईश्वर लोक की आभा बढ़ाने चले गए।”सुलभ “के नाम का पर्याय थे ,बिंदेश्वरी जी पाठक। देश भर में सुलभ शौचालय की जो श्रृंखला देखने को मिलती है, उसके जनक थे बिंदेश्वरी जी पाठक। 15 अगस्त को भारत माता के इस लाल ने जश्न ए आजादी मनाने के बाद दुनिया को अलविदा कह दिया।

आम जनता किस तरह सुलभ तरीके से शौच, स्नान आदि ढंग से कर सके, इसकी सोच मात्र सुलभ शौचालय नहीं है, बल्कि बिंदेश्वरी जी के शब्दों में 'हर दिन आम जनता का दिन किस तरह सुलभ हो सके, यह प्रयास है -सुलभ शौचालय'। जब जीवनचर्या के मूलभूत कार्य -शौच, स्नान आदि सुलभ न हों तो पूरा दिन ही व्यर्थ लगता है। आम जन, गरीब जन, यात्री,सड़कों पर रहने वाले लोग किस तरह स्वच्छ जीवन बिताएं, सुलभ के माध्यम से यही प्रयास था बिंदेश्वरी जी पाठक का।

पाठक जी का व्यक्तित्व बेहद आत्मीयता से ओतप्रोत था। 

मेरी मुलाकात उनसे 2016 में कोलकाता से दिल्ली लौटते वक़्त हवाई यात्रा में हुई थी। मेरी तीन साल की बेटी हवाई जहाज की पहली पंक्ति में बैठी थी क्योंकि सामने वाली पंक्ति में मुझे केवल एक ही सीट मिल पाई थी, परिवार के बाकि सदस्य पीछे की पंक्ति में ठीक उसी के पीछे बैठे थे। तभी मैंने बगल में बैठे किसी व्यक्ति को सुना जो मेरी बेटी को इंगित कर विमान परिचारिका से पूछ रहा था 'इज शी ट्रेवलिंग अलोन?' (क्या यह लड़की अकेले सफ़र कर रही है?)। मैंने पीछे बैठे सुन लिया, मैंने आगे आकर बताना सही समझा। मैंने कहा, "नहीं, परिवार के बाकि सदस्य ठीक पीछे वाली कतार में बैठे हैं"। मुस्कुराते हुए पाठक जी के चेहरे से ऐसा लगा कि जैसे वह कह रहे हों कि 'कुछ बातें करनी है'। मैं जाकर पुनः अपनी सीट पर बैठ गया। तभी उनकी तरफ से आवाज आई, 'आगे आकर बैठ जाइये'। शायद ईश्वर ने इसी तरह इस महान व्यक्ति से मिलाना चाहा था और मैं आगे आकर बैठ गया। फिर तो ढेर सारी बातें हुईं, मुझे पता चला कि वह मेरे दादाजी पंडित हरिशंकर द्विवेदी जी को भी अच्छी तरह से जानते थे। क्योंकि पाठक जी का कर्मक्षेत्र बिहार से ही शुरू होकर पूरे भारत और फिर पूरे विश्व के कोने-कोने में फैला था। मेरे दादाजी उनदिनों बिहार के प्रतिष्ठित अख़बार आर्यावर्त व द इंडियन नेशन के प्रबंध संपादक थे, इस तरह पाठक जी का परिचय उनसे भी भलीभाँति था। 

ढाई घंटे का कोलकाता से दिल्ली का सफ़र ऐसे बीत गया जैसे कुछ मिनटों का हो। उन्होंने फिर से मुलाकात करने की बात कही, और मैंने भी आश्वस्त किया कि मैं उनसे मिलने उनके द्वारका स्थित (दिल्ली) हेडक्वार्टर में जरूर आऊंगा। मैं गया भी, जैसे अपने घर का कोई बुजुर्ग हो, उन्होंने उस तरह मेरी आवभगत भी की, मखाना खिलाया, चाय पिलाई। हमने ढेर सारी बातें भी कीं। बातें इतनी कि जिसमें एक किताब लिखी जा सके। 

उन्होंने अपने जीवन की शुरुआत पटना के गाँधी मैदान में प्रथम सुलभ शौचालय बनाकर किस तरह शुरू किया,पूरा विस्तार से क़िस्सा बताया जो किसी भी स्नेहीजन द्वारा अपने समझे जाने वाले को ही  बताया जा सकता है। उन्होंने शुरू में किस तरह शौचालय के कार्य में तिरस्कार सहना पड़ा।, उसकी भी कई सारी कहानियाँ बताई। 

अपने श्वसुर की वह झिड़की बताई जो उन्हें तब मिली थी जब उनके श्वसुर को पता चला कि पाठक जी अपने बनाये हुए शौचालय में ख़राबी आने के बाद उसे अपने हाथों से ठीक  करते थे और ऐसा करते समय  शौच भी उनके हाथों में लग जाता था। बिहार के रूढ़िवादी समाज में ब्राह्मण जैसी उच्च जाति से आने के बावजूद बापू के आदर्शों पर चलने वाले बिंदेश्वरी जी पाठक जैसे व्यक्ति ने सुलभ शौचालय की जो अलख जगाई उससे पूरा विश्व परिचित है। उनके इस महान कार्य को देखकर ही 14 अप्रैल को न्यू यॉर्क शहर 'डॉ. बिंदेश्वरी जी पाठक दिवस' के रूप में मनाता है। 

एक दूसरी अप्रतिम घटना मेरे जेहन में बार बार आती है। एक बार मैं अटारी बॉर्डर पर गया जहाँ मुझे सुलभ शौचालय का उपयोग करना था। लेकिन उपयोग करने के बाद मेरे पास दो रूपये छुट्टे नहीं थे। वहां कोई था भी नहीं, जिससे मैं छुट्टे उधार मांग सकता। मैंने गेट कीपर से अनुरोध किया कि मेरे पास दो रूपये के छुट्टे नहीं है, वह सौ रूपये में से ही लेकर काट ले। वह अड़ गया, उसे छुट्टे पैसे ही चाहिए थे। मैंने उससे बहस करना उचित नहीं समझा, मैंने पूछा-'अगर सुलभ शौचालय के बिंदेश्वरी जी बोलेंगे तो क्या वह मुझे जाने देगा और वह मान जाएगा?' उसने भी समझा कि मैं उसे हूल दे रहा हूँ और उसने हामी भर दी। मैंने उनको वहीं से फोन लगा दिया। उन्होंने मुझसे कुशल क्षेम पूछा। मैंने उन्हें बताया कि मैं अटारी बॉर्डर पर आया हूँ और यहाँ भी उनका सुलभ शौचालय देखा जो बहुत ही साफ़ और अच्छा है। मैंने उनसे कहा - “मैं यहाँ फंस गया हूँ क्योंकि मेरे पास सुलभ शौचालय  की सेवा का उपयोग करने के बाद देने के लिए छुट्टे पैसे नहीं हैं और उनका नुमाइंदा मुझसे छुट्टे लिए बगैर मुझे जाने नहीं दे रहा ।बिना पैसे दिए मुझे वहां से जाना गंवारा नहीं लगा ,अतः इसके समाधान के लिए मैंने आपको फोन लगाया है। “उन्होंने तुरंत कहा कि मुझसे बात करवाइये। मैंने बात करवाई, तब उसने मुझे जाने दिया।  वैसे तो उसे अंदेशा नहीं था कि पाठक जी उससे बात करेंगे। लेकिन बिंदेश्वरी जी का व्यक्तित्व इतना सरल था कि वे कभी अपने पद-प्रतिष्ठा की गर्माहट अपने चेहरे, अपने व्यक्तित्व की आभा को आच्छादित नहीं करने देते थे। इस तरह दो रूपये की मदद के वक़्त भी वह मेरे साथ आकर खड़े हो गए। 

आज 15 अगस्त के दिन उन्होंने इस संसार को अलविदा कह दिया। हालाँकि मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वह आज भी हैं और हमेशा रहेंगे। इस गाँधीवादी महान सपूत को अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि!

साभार- हर्षवर्धन द्विवेदी के फ़ेसबुक पोस्ट से

देखें पब्लिक लोकपाल के आर्काइव से लिया गया उनको वीडियो 


NEWS YOU CAN USE