क्या है जालियाँवाला बाग हत्याकाण्ड की रूह कंपा देने वाली कहानी? जानें ....
Public Lokpal
April 13, 2021
क्या है जालियाँवाला बाग हत्याकाण्ड की रूह कंपा देने वाली कहानी? जानें ....
13 अप्रैल 1919, इतिहास का वह काला दिन जब जलियांवाला बाग में, बैसाखी के दिन शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन में जुटे 1000 निहत्थे लोगों पर एक निर्मम ब्रिगेडियर-जनरल रेजिनाल्ड डायर ने अपनी सैन्य टुकड़ी को कमांड दिया - फायर!!!! और वह शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन एक भयानक रक्तपात में बदल गया।
यह फायरिंग तब तक चलती रही जब तक ब्रिटिश सैनिकों के पास गोलियां खत्म नहीं हो गईं। 10 मिनट तक चली इस खूनी गोलीबारी ने अपने पीछे भयंकर रक्तपात, अनगिनत गोली के छेद, और मुर्दा चुप्पी छोड़ दिया था। जिसके दाग आज भी जलियांवाला बाग़ की दीवारों पर देखे जा सकते हैं।
शांतिपूर्ण प्रदर्शन की क्या थी वजह?
18 मार्च 1919 को भारत में ब्रिटिश सरकार ने 'रौलट एक्ट' नाम का काला कानून पारित किया। बर्तानिया हुक़ूमत का मकसद रोलेट एक्ट के जरिये भारत में उभर रहे राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलना था। इस कानून से ब्रिटिश सरकार को ये अधिकार प्राप्त हो गया था, कि वह किसी भी भारतीय पर अदालत में बिना मुकदमा चलाए, उसे जेल में बंद कर सकती थी। नरसंहार से एक हफ्ते पहले - 30 मार्च 1919 को, अमृतसर के जलियांवाला बाग में 30,000 से अधिक लोग इकट्ठा हुए थे। सैफुद्दीन किचलु और डॉ सतपाल ने इस जनसभा को संबोधित किया। नतीजतन वह रौलेट एक्ट के ब्रिटिश सरकार द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए। 13 अप्रैल
1919 को अपने इन्हीं दो नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में जलियांवाला बाग़ में हज़ारों लोग शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन में एकजुट हुए थे।
क्या हुआ था उस रोज़?
ब्रिग्रेडियर जनरल डायर ने बन्दुक दागने का आदेश देने से पहले जलियांवाला बाग की सभी निकासियों को बंद करवा दिया। चारों तरफ से गोलियों की बौछार होने लगीं। निहत्थी भीड़ जिसमें जवान, बूढ़े, बच्चे सब शामिल थे, कुछ ही पलों में जमीन पर लोट गई। कुछ ने बाग में मौजूद कुएं में छलांग लगा ली, कुछ दीवारों की ओर भागे लेकिन कुछ दीवार के ऊपर से ठेल दिए गए और नीचे आ गिरे। तमाम लोग गोलियों की बौछार से खुद को न बचा सके। कुछ भगदड़ में जान बचाकर इधर-उधर भागते लोगों के पैरों तले कुचल कर अधमरे हो गए तो कुछ ने वहीं मौके पर दम तोड़ दिया।
लेखक भीष्म साहनी ने अपनी किताब ''जलियांवाला बाग़' में लिखा है कि उस दिन गोलियां तब तक चलती रहीं जब तक कि आये सैनिकों के पास से गोलियों का स्टॉक समाप्त नहीं हो गया। यह बात खुद डायर ने कबूल भी की थी। पुस्तक में भीष्म साहनी ने उस खूनी जनसंहार के बारे में लिखा है कि गोलियां दागने का आदेश डायर ने शाम 5.30 के करीब दिया। लगभग 10 मिनट तक शांतिपूर्ण प्रदर्शन में जुटे लोगों की चीखें और बन्दूक की आवाजें सुनाई देती रहीं। 2000 लोग मारे जा चुके थे, जो अधमरे थे वे पानी-पानी की गुहार लगाते रहे। लेकिन वहां पानी तो दूर की बात, उस घायलों और मृतकों का कोई सगा-संबधी उन्हें ले जाने की हिम्मत न जुटा पाया। बाग़ शाम 8 बजे बंद हो जाया करता था। जनसंहार के कुछ देर बाद अमृतसर के कुछ लोग घबराहट और भय के बीच हिम्मत जुटा कर अपने सम्बन्धियों और मित्रों की तलाश में वहां आये लेकिन जल्द ही अँधेरा हो गया। अँधेरे में किसी को तलाशना और पहचान पाना मुश्किल हो रहा था। किसी को भी शाम 8 बजे के बाद अंदर जाने की अनुमति नहीं थी। कहा जाता है कि हज़ारों लोग अपनी पीड़ा में कराहते हुए अगली सुबह तक इस दुनिया से रुखसत हो गए।
भीष्म साहनी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि डायर को इतने से भी तसल्ली नहीं हुई, उसने रात 10 बजे अपनी आर्मी को यह सुनिश्चित करने का आदेश दिया कि अमृतसर की सड़कों पर कोई भी 8 बजे के बाद तो नहीं दिख रहा, उसके आदेश का पालन हो रहा है या नहीं! डायर ने अपने बयान में कहा था कि उस दिन रात में सड़कें एकदम सुनसान थीं, यहाँ तक कि एक आत्मा भी नहीं दिख रही थी!
जनरल स्टाफ डिवीज़न के सामने 25 अगस्त 1919 को दिए गए अपने बयान में उसने कहा 'भीड़ को तितर-बितर करने के लिए मैंने आखिरी गोली खत्म होने तक फायरिंग करने का आदेश दिया था।
इस भीषण त्रासदी के बाद रवींद्रनाथ टैगोर ने अपने ब्रिटिश 'नाइटहुड' का सम्मान त्याग दिया और महात्मा गांधी ने कैसर-ए-हिंद पदक लौटा दिया। इस नरसंहार ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और पूर्ण स्वराज की धुन को और ज्यादा पक्का कर दिया।
खुले तौर पर अपने रुख और कई पूछताछ में खुद सही ठहराने के बावजूद, डायर को केवल इस्तीफा देने के लिए कहा गया, उसे जेल नहीं भेजा गया। बाद में स्ट्रोक और आंशिक पक्षाघात के चलते नरसंहार के आठ साल बाद, 1927 में उसकी मौत हो गई।
1922 में अंग्रेजों ने रौलट एक्ट को वापस ले लिया। 100 से अधिक वर्षों के बाद, जलियांवाला बाग हत्याकांड और रक्तपात अमानवीयता और बर्बरता का प्रतीक बना हुआ है।