मजदूर दिवस और रोजगार के घटते पैमाने

Public Lokpal
May 01, 2022

मजदूर दिवस और रोजगार के घटते पैमाने


(बीना पाण्डेय)

कहते हैं जहाँ समस्याएं अपनी हद पार करने लगती हैं, तो समाधान अपना रास्ता वहीं से निकालता है, जैसे दाब जब अपने ऊपर रखी किसी भारी चीज से ज्यादा शक्तिशाली हो जाता है, वह उसे पलट कर सीधा बाहर निकल आता है, ठीक वैसे ही। ऐसा ही कुछ हुआ औद्योगिक क्रांति के गढ़ संयुक्त राज्य अमेरिका में। जहाँ पूँजीपतियों की औद्योगिक आकांक्षाओं ने अपने मातहत काम करने वाले मजदूरों को बस मशीन समझा और बेहद ख़राब हालातों में भी उन्हें काम करते रहने को मजबूर करते रहे। 19 वीं शताब्दी के दौरान, औद्योगिक क्रांति के चरम की भरपाई संयुक्त अमेरिका के हजारों पुरुष, महिलाएं और बच्चे अपनी असामयिक मौत और अपने अंगभंग से पूरी कर रहे थे। ये कामगार 15 से 18 घंटे बिना किसी सुरक्षा सुविधा के लगातार काम करते, लेकिन इनके काम की कमाई का हिस्सा पूंजीपतियों की जेब और उनकी ऊँची महत्वाकांक्षाओं में खर्च हो जाता। हाड़तोड़ मेहनत के बदले कामगारों के हिस्से आती भूख, बीमारी और अकाल मौत। 

इन अमानवीय स्थितियों से लड़ने और पार पाने के प्रयास में, 1884 में फेडरेशन ऑफ ऑर्गेनाइज्ड ट्रेड्स एंड लेबर यूनियन्स यानी  FOTLU (जो बाद में अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर या AFL बना) ने शिकागो में एक सम्मेलन आयोजित किया। FOTLU ने घोषणा की कि 1 मई, 1886 से अब मजदूरों के श्रम अवधि दिन में केवल आठ घंटे होगी।

अगले साल फिर अमेरिका के सबसे बड़े श्रमिक संगठन 'नाइट्स ऑफ लेबर' ने FOTLU की इस घोषणा का समर्थन किया फिर दोनों समूहों ने मजदूरों को अपने हक़ के लिए हड़ताल और प्रदर्शन करने का रास्ता सुझाया।

1 मई, 1886 को, देशभर के 13,000 पेशों से 300,000 से अधिक श्रमिकों (अकेले शिकागो में 40,000) ने अपनी नौकरियां छोड़ दीं। बाद के दिनों में इस काफिले में और मजदूर शामिल हुए और हड़तालियों की संख्या बढ़कर लगभग 100,000 हो गई।

दो दिनों बाद शिकागो पुलिस ने भयंकर कत्लेआम किया और हेमार्केट में भारी जनसंहार हुआ। मजदूर फिर भी अड़े रहे और दुनिया भर खासकर यूरोप के समाजवादी संगठनों से मिले समर्थन के बाद आखिरकार 1891 में अमेरिका को झुकना पड़ा और जहाँ सितम्बर के पहले सोमवार को मजदूर दिवस घोषित किया गया। कनाडा ने भी जल्द ही यही प्रथा अपना ली।

1889 में, समाजवादी और श्रमिक दलों द्वारा बनाई गई संस्था द सेकंड इंटरनेशनल ने घोषणा की कि 1 मई को अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस के रूप में मनाया जाएगा। आखिरकार 1916 में, अमेरिका ने वर्षों के विरोध और विद्रोह के बाद आठ घंटे को श्रम अवधि को अपनी स्वीकार्यता दे दी।

1917 में रूसी क्रांति के बाद सोवियत संघ और शीत युद्ध के दौरान ईस्टर्न ब्लॉक राष्ट्रों में से तमाम ने 1 मई को राष्ट्रीय अवकाश के रूप में अपनाया। 

हिंदुस्तान में मई दिवस पहली बार 1 मई 1923 को मनाया गया, जब लेबर किसान पार्टी ऑफ़ हिंदुस्तान ने इसकी शुरुआत की और कॉमरेड सिंगारवेलर (सिंगारवेलु चेट्टियार) ने इस समारोह को आयोजित किया। दो सभाओं, ट्रिप्लिकेन बीच पर और दूसरा मद्रास हाईकोर्ट के सामने स्थित समुद्र तट पर जुटे तमाम मजदूर नेताओं और कामरेड की मौजूदगी में यह मांग की गई कि मजदूर दिवस को राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया जाना चाहिए।

वर्ष 1919 में प्रथम विश्व युद्ध के बाद वर्साय की संधि के हिस्से के रूप में एक अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन का गठन किया गया। इस संगठन के गठन विश्वास को प्रतिबिंबित करने के लिए किया गया कि सार्वभौमिक और स्थायी शांति केवल तभी पूरी हो सकती है जब यह सामाजिक न्याय पर आधारित हो। 1946 में, अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन संयुक्त राष्ट्र की एक विशेष एजेंसी बन गई।

बात भारत के हालिया रोजगार संकट की -

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़ों के मुताबिक, 45 करोड़ से ज्यादा भारतीयों ने नौकरी की तलाश छोड़ दी है। यह आंकड़ा कानूनी कामकाजी उम्र के 90 करोड़ भारतीयों का आधा है, जो अमेरिका और रूस की कुल आबादी के बराबर है। इन आंकड़ों से सरकार के कानों में खतरे की घंटी बजनी चाहिए थी। लेकिन इसके उलट सरकार ने अपने बचाव के लिए और रिपोर्ट के खंडन के लिए सारे साधन तैनात कर दिए। श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने रिपोर्ट को 'तथ्यात्मक रूप' से गलत ठहराया।

लेकिन यह सबसे बड़ा सच है कि हालिया दौर में भारत बेरोजगारी की गंभीर समस्या से जूझ रहा है जिसे देश में बेरोजगारी पर शोध करने वाले कई संगठनों ने स्वीकार किया है। कोविड -19 महामारी की शुरुआत के बाद लाखों लोगों की नौकरी चली गई है। लेकिन इससे पहले भी, 2016 के विमुद्रीकरण ने अनौपचारिक क्षेत्र को पंगु बना दिया, औद्योगिक उत्पादन गिर गया और नौकरियां गायब हो गईं। 2017 में वस्तु एवं सेवा कर को जल्दबाजी में लागू करना एक और झटका साबित हुआ जिसने अर्थव्यवस्था को धीमा कर दिया और नौकरियों को प्रभावित किया। महामारी ने केवल दुख को बढ़ाया।

श्रम आधुनिक समाज में आर्थिक विकास की प्राथमिकताओं में से एक है।

हैरानी की बात है कि आज पूंजीपति की श्रम पर निवेश करने में कोई दिलचस्पी नहीं है और आर्थिक विकास के प्रति यह उदासीनता उस संकट को और गहरा कर देती है जिसका सामना पूंजीवादी समाज खुद कर रहा है।

भारत में छात्र शिक्षक अनुपात या नर्सों और डॉक्टरों का अनुपात अंतरराष्ट्रीय मानदंडों से कम है। याद रखें, वर्तमान में शिक्षितों में बेरोजगारी की दर सबसे अधिक है।

रोजगार और श्रम के हालत जानने के लिए https://unemploymentinindia.cmie.com/ के इन आंकड़ों को देखा और समझा जाना चाहिए-