हिन्दी पत्रकारिता की ऐसी दमक अब मिलती नहीं
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Public Lokpal
September 17, 2024
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हिन्दी पत्रकारिता की ऐसी दमक अब मिलती नहीं
(स्टोरी टेलर हर्षवर्धन द्विवेदी की डिजिटल वॉल से साभार)
पब्लिक लोककथा में आज हम बात कर रहे हैं ऐसे पत्रकार की जिन्होंने आज़ादी के पहले पत्रकारिता को देखा, समझा और आज़ादी के बाद उसे एक नए आयाम पर पहुंचा दिया। नाम है उनका पंडित हरिशंकर द्विवेदी। आज उनका जन्मदिन है। आज 17 दिसंबर को विश्वकर्मा जयंती भी है और आज ही के दिन पंडित जी का जन्मदिन भी है। जैसे विश्वकर्मा जी की पूजा एक शिल्पकार के रूप में होती है, उनकी पूजा होती है, हर कल-कारखानों की अच्छी रख रखाव के लिए,अच्छी देखभाल के लिए, उनको इष्टदेव की तरह पूजा जाता है। इसी तरह पंडित जी को हिंदी पत्रकारिता के विश्वकर्मा के रूप में पूजा जाए तो कोई अतिश्योक्ति न होगी।
मैंने उनके कई लेख देखे हैं, मैंने उन लेखों में उनके कई आयाम देखे हैं। वह हिंदी पत्रकारिता में ऐसे पत्रकार थे जो पत्रकारिता को गहन विश्लेषण के तौर पर देखना चाहते थे। वह विश्लषण जिसकी चाहत आज के पाठकों को होती है, वह उसी समय से किया करते थे।
मुझे याद है, जब वह आर्यावर्त इंडियन नेशन के संपादक बने, तो मैंने उनसे पूछा कि आर्यावर्त इंडियन नेशन तो बिहार का न्यूज़ पेपर है, यहाँ के लोगों की क्या इच्छा होती है जानने की ? उन्होंने कहा कि ये ऐसे लोग हैं जो ये चाहते हैं कि उनके घरों में क्या हो रहा है, उनके आस -पास क्या हो रहा है, उनके जीवन में क्या हो रहा है। ये सारी चीज़ें उनके इन अखबारों में छपे। उन्होंने उन छोटी-छोटी जगहों की खबरों को छापना शुरू किया जिनकी चाहत वहां के पाठकों को होती थी। यानी बिहार के जो पाठक होते थे, वो काफी जिज्ञासु प्रवृति के होते हैं। आज भी उनकी इच्छाशक्ति जानकारियों के प्रति काफी अधिक है। वे चाहते हैं कि उन्हें ज्यादा से ज्यादा जानकारी हासिल हो। अगर आप उनके सामने छोटा सा औजार भी ले जाएं तो वो उनके बारे में पूछना शुरू कर देंगे। अगर उनके सामने एक छोटी सी बकरी भी ले जाएं तो वो उसके बारे में भी जानना चाहेंगे। अर्थात उन्हें हर छोटी से बड़ी चीज की जानकारियां चाहिए।
यह बात उनके दिमाग में हमेशा रहती थी कि उनके जो पाठक हैं, वो उन चीजों को जानना चाहते हैं जो घटना उनके आस-पास घटित होती है।
इस न्यूज़ पेपर की बात मैं इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि उस न्यूज़ पेपर की हालत इतनी बुरी थी कि उसमें अक्षर दिखते नहीं थे। यह न्यूज़ पेपर दरभंगा महाराज का होता था। दरभंगा महाराज की स्थिति इतनी अच्छी नहीं थी कि वे उस न्यूज़ पेपर को चला पाएं। लेकिन उसमें साढ़े चार-पांच सौ कर्मचारी थे जिनके दबाव में उनको यह न्यूज़ पेपर चलाना पड़ रहा था, तो वह चला रहे थे। अब उस पेपर को किस तरह चलाया जाय कि ज्यादा-से-ज्यादा लोग उसे खरीद कर पढ़ें। यह जिम्मेदारी पंडित जी को दी गई क्योंकि वह प्रबंध संपादक भी थे और प्रबंध निर्देशक भी थे। उन्होंने कहा कि मैं इसे चलाऊंगा।
उन्होंने इस पेपर की हालत ऐसी कर दी कि अब वह गांव-गांव पहुँचने लगा। वह गांव-गांव की खबरें देने लगा जबकि उसे पढ़ पाना काफी मुश्किल था। उसमें अक्षर इतने दूर-दूर होते थे कि अगर किसी शहर का नाम जैसे पटना ही लिखना है तो वह एक जगह पर 'प', एक जगह 'ट,' एक जगह 'ना' होता था। यानी उसको मिलाकर पढ़ना होता था, तब भी उस अख़बार की बिक्री सबसे ज्यादा होती थी। हिंदुस्तान व बड़े-बड़े अख़बार सिर पकड़े होते कि ऐसी बदतर हालत में भी यह अख़बार कैसे चल रहा है!
यानी पंडित जी की दूरदर्शिता ऐसी थी कि वह अपने समय से आगे व समय से पहले क्या होने वाला है, भांप लेते थे। यानी पत्रकारिता की शुरुआत कैसे हुई, किन स्थितियों में हुई। स्वतंत्रता सेनानियों ने क्यों पत्रकारिता की शुरुआत की?
वह उस युग के आदमी थे, जब गाँधी जी का आंदोलन चल रहा था, उन्होंने गाँधी जी के आंदोलन को करीब से देखा था, वह पैदल ही बलिया से बीकानेर (राजस्थान) चले गए क्योंकि पुलिस वाले उनके पीछे पड़ गए थे। वह वो शख्स थे जिन्होंने हिम्मत की, अपनी पढ़ाई को एक साल बीच में छोड़ा और आज़ादी की वजह से इधर-उधर भागते रहे और वापस आकर छपरा से अपनी पढ़ाई पूरा किया।
पंडित जी ने हमेशा देश को ऊपर रखा, अपने लेखनी को हमेशा ऊपर रखा। उन्होंने कभी अपने लिए लिखना ठीक न समझा। कभी चकाचौंध में न आये। आजकल के पत्रकार जिन बातों को आदर्श के तौर पर जानते हैं, पंडित जी के जीवन में वह आमतौर पर देखने को मिलता है। अगर उनके जीवन को ठीक से देखा जाय, उनकी लेखनी को ठीक से देखा जाए, उनके लेखों को ठीक से देखा जाय तो हमें वह सारी चीजें मिलेंगी जो आदर्श पत्रकारिता के लिए आवश्यक है।
सत्ता की हनक उन्हें कभी हिला नहीं सकी। हाँ सत्ता जरूर उनसे हिला करती थी क्योंकि वह आम आदमी की भाषा लिखते थे। उनकी भाषा की लिखावट ऐसी होती थी जिसे एक रिक्शा वाला भी पढ़ ले। वह कहते थे कि पत्रकारिता आमजन मानस तक पहुँचने की भाषा है। अगर आप ऐसी क्लिष्ट भाषा लिखें जो आम जनमानस तक न पहुँच पाए तो ऐसी पत्रकारिता किस काम की? फिर तो आप साहित्य करें। यानी उन्होंने पत्रकारिता और साहित्य के बीच एक महीन रेखा खींची।
हमें लगता है कि पंडित जी की पत्रकारिता के आदर्शों को आज भी सहेजा जाना चाहिए, और अगर ऐसा हुआ तो हम पत्रकारिता के माध्यम से आम जनमानस तक पहुँच पाएंगे, देश को बचा पाएंगे।
सत्ता की हनक से कलम को दूर रखने वाली पंडित जी की पत्रकारिता को नमन..