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'कश्मीर-यात्रा' का प्रोग्राम बनाने वालों से: यात्रा को सुविधाजनक बनाने के कुछ सुझाव
Public Lokpal
September 17, 2022
'कश्मीर-यात्रा' का प्रोग्राम बनाने वालों से: यात्रा को सुविधाजनक बनाने के कुछ सुझाव
(आज पंडित जी की जन्मशती है। इसलिए पब्लिक लोकपाल परिवार उनकी स्मृति में उनके द्वारा लिखे गए तमाम बेहतरीन लेखों में से एक लेख पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा है।)
- 14 जून, 1971
( स्व. श्री हरिशंकर द्विवेदी द्वारा सन्मार्ग के
लिए विशेष)
देश के मैदानी इलाकों में प्रचंड गरमी पड़ रही
है। घर से बाहर निकलने पर शरीर झुलस जाता है। घर के भीतर पंखे या एयरकण्डिशनर से
कुछ राहत मिल सकती थी, लेकिन पूर्वी एवं उत्तरी
भारत में जब देखो, तब 'लोडशेडिंग' हो जाती है। कलकत्ता जैसी
जगहों में लू नहीं चलती, लेकिन उमस के मारे दम
घुटता मालूम देता है। शरीर से पसीना छूटता है। कपड़े शरीर से चिपक जाते हैं तथा
बदबू फेंकने लगते हैं। पानी में बरफ डालकर पियो तो गला ख़राब हो जाता है। यों पियो, तो इतना गरम होता है कि
कोई स्वाद नहीं मिलता। सुराहियाँ और घड़े १५-२० दिनों तक तो पानी को ठंडा करते हैं, लेकिन बाद में उनमे रखा
पानी भी गरम ही रह जाता है। पंद्रह-पंद्रह, बीस-बीस मिनट पर प्यास से गला सूखता है। घर से बाहर जाकर
कामकाज करना मुश्किल होता है। संतरे, मौसमी, सेब और आम के रस से, डाभ के पानी से, दही के घोल से, बेल के तथा फूलों की असली अथवा कृत्रिम खुशबू वाले शर्बतों
से, तरह-तरह के 'एयरटेड वाटर' से प्यास चन्द मिनटों के
लिए बुझती है, लेकिन फिर दौड़ी हुई वापस
आ जाती है। आसमान में बादल आते हैं, तो उमस और बढ़ जाता है एवं वे बरस जाते हैं, तो रास्तों पर चलने में
घृणा होती है। रात को देर तक कमरे गरम बने रहते हैं। यदि 'लोड शेडिंग' नहीं हुई, तो भी पंखों से गरम हवा
ही निकलती रहती है। छोटे शहरों में दिन के समय रिक्शावाले घर से बाहर निकलने में
डरते हैं। शरीर में दाने निकल आते हैं और कोई भी पाउडर छिड़को, राहत नहीं मिलती। गरमी की
मुसीबतों पर लेख नहीं, पूरे ग्रन्थ तैयार हो
सकते हैं। आम, लीची, खरबूजा, तरबूजा, फालसा, दूधखीरी, शहतूत वगैरह फल जीभ और
शरीर को कुछ राहत पहुंचते हैं, लेकिन तो भी गरमी की विपत्ति असह्य ही बनी रहती है।
यात्रा की सवारियां
गरमी से तंग आकर लोग पहाड़ों की ओर भागते हैं और
जिनके बजट में गुंजाइश होती है, वे कश्मीर की ओर ही भागते हैं। कश्मीर यात्रा का आनन्द यदि
बिना मकान के लेना हो, तो विमान से यात्रा करना
अधिक ठीक रहता है। यदि बजट में गुंजाइश इतनी नहीं हो, तो रेल एवं बस की अथवा
टैक्सी की यात्रा करनी ही पड़ती है। जमीन पर यात्रा करने पर अधिक दृश्य देखने को
मिलते हैं। रेलवे के द्वारा पहाड़ी स्थानों की यात्रा करने वालों को ढेढ़ा किराया
देने पर दोनों ओर की यात्रा का टिकट दे दिया जाता है। रेलवे तथा बसों द्वारा १२
वर्ष के नीचे की अवस्था के बच्चों को किराये में ५० प्रतिशत छूट दी जाती है। विमान
का टिकट अग्रिम नहीं लेने पर जम्मू में या दिल्ली में रुकना पड़ सकता है।
यात्रा में ऊनी कपड़े
जम्मू से लगभग ४५ मिनट की बस-यात्रा समाप्त
होते-होते गरमी तेजी से पीछे छूटने लगती है। कुद तथा बटोट पहुँचते-पहुँचते तो इतनी
ठण्डक मालूम देती है कि शाल, स्वेटर या गरम कोट से शरीर को ढंकना जरुरी हो जाता है। अगर
पानी बरस गया, तो ये सारे ऊनी कपड़े
यात्रा के दौरान काम आ जाते हैं। इसलिए सारा सामान तो बस की छत पर रखना चाहिए, लेकिन कुछ ऊनी कपड़े अपने
साथ बस के भीतर जरूर रखना चाहिए।
बस-यात्रा में उल्टी या
चक्कर
बस की यात्रा करने से कुछ लोगों को चक्कर आने
लगता है, सिरदर्द हो जाता है या
उल्टी होने लगती है। उल्टी और चक्कर से बचने के लिए कुछ लोग जम्मू में ही बस के
छूटने के स्थान पर हाकरों से उल्टी रोकने की टिकिया खरीद लेते हैं। जम्मू-श्रीनगर
मार्ग पर ऐसी दुकानें मिलती हैं, जिनसे यात्री उल्टी रोकने की टिकिया, लेमनचूस, टॉफ़ी, चॉकलेट, मिंट की टिकिया वगैरह ले
लेते तथा बस में चूसते जाते हैं। चक्कर और उल्टी रोकने का सबसे सुगम उपाय यह है कि
जहाँ तक संभव हो, बस के बाहर आँखें रखिये; तरह-तरह के दृश्य देखते
जाइये। पूरी यात्रा में दो-तीन बार पेपरमिंट भी मुंह में डालकर उल्टी या चक्कर को
रोका जा सकता है। मैंने कितनी बार कश्मीर की यात्रा की है, ठीक से याद नहीं, लेकिन इतना याद है की
१९४८ से लगातार प्रायः प्रति वर्ष जाता रहा हूँ। जब कभी बस की यात्रा मैंने की, तब खिड़की के पास सीट पाने
की चेष्टा बुकिंग के समय ही की। यदि खिड़की के पास सीट नहीं मिली, तो बायें-दाहिनें देखने
के बजाय नाक की सीध में देखता चलता हूँ, मैंने कभी उल्टी या चक्कर का अनुभव नहीं किया।
जम्मू में ही रात बिताइये
जम्मू-श्रीनगर की यात्रा सुबह में साढ़े ६-७ बस
से शुरू होता है। शाम को ५ से ६ बजे के बीच सब बसें श्रीनगर पहुँच जाती हैं। कुछ
बसें दिन में भी चलती हैं,
जिनका पड़ाव रात को कुद या
बटोट में होता है, लेकिन कुद या बटोट में
ठहरने के बजाय रात को जम्मू में बिताना अधिक सुविधाजनक होता है। कई बार कुद और
बटोट में इतनी भीड़ हो जाती है कि होटल में जगह मिलना कठिन होता है। जम्मू से कुद, बटोट या बनिहाल काफी
ठण्डी जगहें हैं। वहां ठहरने के लिए कम्बल तथा रजाई की जरुरत भी पड़ती है, जो एक अनावश्यक झमेला है।
पानी कहाँ पीना चाहिए
जम्मू से चलने पर साथ में पानी रखना जरुरी नहीं
है। जगह-जगह चश्मों से निकलता हुआ ठण्डा-मीठा पानी मिल जाता है। अधिक प्यास लगती
भी नहीं। यदि किसी को अधिक प्यास लग गयी, तो अनुरोध करने पर बस का चालक किसी विश्वसनीय चश्मे के पास
गाड़ी रोक देता है। कई चश्मों के पानी से कुछ लोगों का गला ख़राब हो जाता है। इसलिए
पानी कहाँ कहाँ पिया जाय,
इस जानकारी के लिए बस के
चालक पर विश्वास करना ठीक रहता है।
भोजन खूब मिलता और खूब
पचता है
जम्मू से चलने पर साथ में चाय, कॉफ़ी या भोजन रखना भी गैर
जरुरी है। जगह-जगह भोजनालय और चाय खाने बने हैं। अच्छा स्वादिष्ट भोजन और चाय-काफी
पाना सुगम है। शाकाहारी भोजनालयों की कमी जरूर है, लेकिन खोजने पर मिल जाते हैं। तंदूर की गरम-गरम
रोटियां, नान, आलू-गोभी, आलू-मटर, पालक-पनीर, मटर पनीर, वगैरह की सब्जी, उड़द चने की दाल, बैंगन का भर्ता, प्याज अथवा पोदीने की
चटनी इत्यादि तैयार खाद्य वस्तुएं ताजा-ताजा मिलती हैं। अच्छा चावल भी मिलता है, जो साधारणतया बारीक और
स्वादिष्ट होता है। चाय काफी में दूध ठीक से पड़ा होता है। जिनको थम्स अप, मिलका, ७७ गोल्ड स्पाट, फंटा इत्यादि पीने का शौक
हो, उन्हें भी निराश नहीं
होना पड़ता। मांसाहारी के लिए तो भोजन का
मजा कहना ही क्या! भोजनालय में सर्विस काफी चुस्ती से एवं ठीक होती है। सफाई अधिक
नहीं रहती, लेकिन तो भी जलवायु इतना
अच्छा है कि बीमार पड़ने का खतरा नहीं रहता। पानी भोजन को सुगमता से पचाता जाता है
और कम भूख लगती है। आजकल चेरी और आलू बुखारा मुख्य फल हैं, जो जम्मू से ही मिलने
लगते हैं। वहां पर बादाम १६ रुपये किलो है, जबकि पटना या कलकत्ता में ६५ रुपये किलो से कम भाव का कोई
बादाम नहीं। राजमा ४ रूपये किलो है, जबकि पटना में उसका भाव ७ रुपये है। बिलो (वेद) की बनी
तरह-तरह की टोकरियां और अनेक चीजें भी वहां काफी सस्ते भाव पर मिलती है। इस साल
काली चेरी और आलू बुखारा की फसलें वर्षा से ख़राब हो गयी हैं। सब खरीदारी श्रीनगर
से लौटते समय करनी चाहिए।
रामबन और रामशू में
प्रकृति का एक तमाशा देखिये। कुछ और बटोट की
ठण्ड का आनन्द लेने के बाद जब आप पादों से घिरे रामबन या रामशू में पहुंचेंगे, तब उतनी गरमी मालूम देगी, जितनी जम्मू में होती है, यद्यपि लू कभी नहीं चलती।
नदी चेनाब के किनारे आपकी बस इतने करीब से चलती है कि नदी की सब मनोरंजक हरकतें आप
मीलों देखते जाते हैं।
शान्ति और समृद्धि की
घाटी
मैं तो बिहार में रहता हूँ। यहाँ का जो अनुभव
है, उसके कारण बस की यात्रा
से भागता हूँ। यदि कभी मैंने लाचारी के कारण बस की यात्रा की, तो मुसाफिरों के मुंह से
बातबात पर गालियों का जो उपयोग होता है, उसे सुनकर मन बहुत दुःखी होता है। जब आप जम्मू छोड़ते हैं, तब से ही आपके कानों में
गालियों की आवाज पड़ना बन्द हो जाता है। सच पुछा जाय, तो कश्मीरी भाषा में गालियां हैं ही नहीं।
बिहार की बसों में यात्रियों के सामान गायब होने की शिकायत आम रहती है, लेकिन वैसी शिकायत आप
जम्मू के बाद नहीं सुनेंगे। कश्मीर में डकैतियां तो कभी सुनी नहीं जातीं, चोरियां भी अत्यंत कम
सुनी जाती हैं। औरत अगर अकेली हो, तो जम्मू से ही उसकी मदद करने वाले मिलने लगेंगे एवं उसकी
ओर बुरी नज़र उठाने वाले अत्यंत कम होंगे। जम्मू और कश्मीर में स्त्रियों को पूर्ण
स्वतंत्रता है, क्योंकि वहां एवं विशेषतः
घाटी में उन्हें लफंगों का सामना करना नहीं पड़ता। श्रीनगर में रात को दो बजे भी
कोई औरत निडर होकर घूम सकती है। जो सैलानी कश्मीर को औरतों की खूबसूरती का वर्णन
सुनकर गन्दे इरादों से जाते हैं, उन्हें घोर निराशा होती है, क्योंकि कश्मीर घाटी में औरत का शरीर बिकता
नहीं। वेश्यावृत्ति वहां पुराने समय से ही गैरकानूनी है। यदि झेलम तथा डल झील में
रहने वाले माझी कभी मजबूरी से लफंगे सैलानियों के गन्दे इरादों के शिकार हुए भी
होंगे, तो आज जमाना बदल गया।
पहले कश्मीर ''शान्ति और गरीबी की घाटी'' कहा जाता था; अब वह ''शान्ति और समृद्धि की
घाटी'' कहा जाता है। इसका श्रेय
हमारी सेना को है, जिस पर काफी खर्च होता है
और जिस खर्च का लाभ आम कश्मीरी जनता को मिलता है।
कम खर्च में कश्मीर निवास
कश्मीर में पहुँच जाने पर पर्यटकों को केवल
महँगी ही नहीं, काफी सस्ती जगहें भी मिल
सकती हैं। पूछताछ करके थोड़ा खोजना पड़ता है। महँगी जगह तो कदम-कदम पर मिलती हैं।
जाँच-पड़ताल करने पर हिन्दू नान बाइयों की दुकानों से सिर्फ २० पैसे में पौष्टिक
एवं सुपाच्य नान रोटी मिलती है। दो रोटी खा लेने से पेट भर जाता है। आलस को
थोड़ा-सा भी छोड़ देने से पृथ्वी के स्वर्ग में काफी कम खर्च में गर्मी का मौसम
बिताया जा सकता है। जो लोग धर्मप्रेमी हैं, उनके लिए कदम -कदम पर मन्दिर हैं। ज्योतिषियों, तान्त्रिकों की दृष्टि से
तो कश्मीर घाटी का कोई मुकाबला नहीं।
अवर्णनीय का वर्णन
कश्मीर घाटी में इस समय मौसम काफी सुहावना है। सरसों और मूली में फूल लगे हैं। गेंहूं में बालियां पुष्ट हो रही है। धान की बोवाई जारी है। दिन में ऊनी कपड़ों के बिना काम चलता है, लेकिन सुबह-शाम ऊनी कपडा पहनने से आनन्द आता है। रात को ओढ़ने के लिए अधिक से अधिक दो और कम से कम एक कम्बल की जरुरत होती है। मक्खियां हैं, लेकिन कम। मच्छर भी कभी दिख जाते हैं, पर रात को इतनी सर्दी होती है कि मच्छरदानी की जरुरत नहीं होती। गुलमर्ग जाना हो, तो 'फोल्डिंग' छाता साथ रखना ठीक रहता है। नारियल का तेल और घी सब समय जमा रहता है। पहाड़ों पर बर्फ का दृश्य मन को मुग्ध करने वाला है। चिनार, सफेदा और वेद के पेड़ों से सारी घाटी अलंकृत है। खुशबू से भरे पौधों और फूलों की गिनती करना असम्भव है। म्यूनिसिपैलिटियों ने सभी छोटे-बड़े नगरों को फव्वारों तथा फूलों की क्यारियों से सजाया है। सौन्दर्य खोजने के लिए कहीं जाने की जरुरत नहीं। जहाँ रुक जाइये, वहीं सौन्दर्य का रसपान आँखों से करते रहिये। यानों-वाहनों की गरमी रहती है, लेकिन आपकी शान्ति भंग करने वाला कोई नहीं। ऐसा मालूम देता है कि कश्मीर में स्वयं प्रकृति ने आपके दैहिक, दैविक और भौतिक तापों को मिटाने का काम अपने हाथ में सम्भाल लिया है। आप कश्मीर जरूर जाइये, लेकिन केवल सौन्दर्य आनन्द लूटने नहीं। यह देखने और खोजने के लिए भी जाइये कि इस पवित्र घाटी की जमीन का कोई टुकड़ा ऐसा नहीं, जिस पर किसी समय मन्दिर नहीं रहा हो और जो आपके प्राचीन ऋषियों और प्रकाण्ड पण्डितों के चरणरज से पवित्र नहीं हो।
(पंडित जी के 101 वें जन्मदिवस पर उनके लेखों के संकलन का प्रकाशन होने की सम्भावना है)