पत्रकारों का देवासुर-संग्राम आज। लड़ाई “सहगल” और “शलभ” में

Public Lokpal
March 21, 2021

पत्रकारों का देवासुर-संग्राम आज। लड़ाई “सहगल” और “शलभ” में


-कुमार सौवीर से साभार 

लखनऊ : पात्र बदल गये हैं और कुछ घटनाओं में हल्‍का-फुल्‍का बदलाव जरूर हो गया है। लेकिन सच तो यही है कि उप्र मान्‍यताप्राप्‍त पत्रकार समिति का आज होने वाला चुनाव का घटनाक्रम किसी रामायण या देवासुर-संग्राम से कम नहीं है।

ऐसे वक्‍त में जब पत्रकारिता अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है, रविवार का एक बार फिर उप्र की विधानसभा के गलियारे में चहल-पहल शुरू होने ही वाली है। कभी ताजा-तरीन खबर सूंघने की कोशिश और खुद को श्रेष्‍ठ खबरनवीस साबित करने का भरसक प्रयास करने वाली पत्रकार बिरादरी के अधिकांश पत्रकार अब विज्ञापन के लिए सरकारी कुर्सियों के पायदान चूमने की आपाधापी मचाते हैं। दैनिक तौर पर समाचारों को लेकर जागरण और उजाला फैलाने वाले अखबारों में अब खबरों को छुपाने, सत्‍ता और उसके करीबियों का प्रचार करती खबरों को प्रश्रय देने, आम आदमी की खबर को तोड़-मरोड़ कर देने या उनका कत्‍ल कर देने वाले लोगों की भरमार हो गयी है। ऐसे पत्रकार अपने संस्‍थान के लिए विज्ञापन जुटाने ही नहीं, बल्कि खुद को मालामाल करने की जीतोड़ कोशिशों में हैं। अब पता ही नहीं चलता कि कौन पत्रकार है और कौन विज्ञापनकर्मी। विज्ञापनों को खबरों की तरह पेश करने की एक नयी साजिश बुनी जा चुकी है, ताकि पाठक को ठीक से मूर्ख बनाया जा सके।

दो-चार संस्‍थानों को अगर छोड़ भी दें, तो अधिकांश न्‍यूज चैनलों में तन्‍ख्‍वाह देने की परम्‍परा ही खत्‍म हो गयी है। अखबार और चैनलों में पत्रकार बनने के लिए मोटी रकम और नियमित अंशदान भी लिया जा रहा है। कई चैनल तो ठेका-पट्टा तक हासिल करने के लिए अपने पत्रकार-स्ट्रिंगर्स को प्रेरित करते हैं, मजबूर करते हैं। जो यह नहीं कर सकता, उसे बेदर्दी से हटा दिया जाता है। दिलीप कुमार सिन्‍हा और रामकृष्‍ण बाजपेई जैसे समर्पित पत्रकार भी स्‍वीकार करते हैं कि अपनी जीवन का पचास बरस पूरा कर चुके पत्रकार तो अपने दुर्दिनों से जूझने को अभिशप्‍त हैं। नये दौर की नयी पत्रकारिता के नये पत्रकारों ने अपने लिए एक नयी कलम, लिपि, इबारत और इतिहास ही नहीं, पत्रकारिता का चेहरा भी बदल डाला है। अब तो डर लगने लगता है कि भविष्‍य की पत्रकारिता की पहचान किन चिन्‍हों से होगी, उसका पग-चिन्‍ह क्‍या होगा, उसका स्‍वर और उसका प्रवाह और उसका असर क्‍या होगा और उससे कौन-कौन बर्बाद होगा।

लेकिन अब सवाल यह उठता है कि लगातार पतन की ओर फिसलती जा रही पत्रकारिता की इस दुर्दशा के लिए जिम्‍मेदार कौन है। सामान्‍य तौर पर लोगबाग धन या पूंजी के चरित्र को ही इसका जिम्‍मेदार मानते हैं। एक बड़ा सच तो यह भी है। एक और बड़ा कारण है राजनीति में आये बदलाव। लेकिन सब को कोसने-गालियां देने के साथ हम अपने गिरहबान में क्‍यों नहीं झांक रहे हैं, कि इस हालत का एक बड़ा कारण हम पत्रकार स्‍वयं हैं। चंद लोगों को छोड़ दीजिए, लेकिन हम में से कोई भी एक पत्रकार क्‍या अपने दिल पर हाथ रख कर कह सकता है कि वह श्रमजीवी पत्रकार कानून की परिधि में आता है। वह भी छोडि़ये, अधिकांश पत्रकारों को न तो सोचने, समझने और लिखने की तमीज है, और न ही पत्रकार की मर्यादा और उसकी सीमाओं का अहसास। आज का हर एक पत्रकार केवल धन-उगाही की फिराक में है। कैसे भी हो, रकम चाहिए, वह भी अधिकतम और अकूत। उसके लिए कुछ भी त्‍याग करने को तैयार हैं आज के पत्रकार। लेकिन यह विरासत तो उन्‍हें अपने वरिष्‍ठों से ही मिली है। चाहे सन-77 में स्‍वतंत्र भारत प्रेस में मुख्‍य उप संपादक रहे सिद्दीकी की हत्‍या का मामला हो, जिसकी चाकू मार कर हत्‍या हुई थी। इस मामले में एमपी सिंह नाम के एक वकील का नाम चर्चा में आया था, लेकिन उसके बाद से ही एमपी सिंह ने नीला-लाल स्‍याही से नवरात्र नाम से एक साप्‍ताहिक अखबार निकाला और खुद को पत्रकार घोषित कर दिया। आज जो हमारे दिग्‍गज और सरलता, बुद्धिमत्‍ता और वरिष्‍ठता का मुलम्‍मा चढ़ाये बैठे पत्रकार हैं न, उन्‍होंने एक बार भी उस या ऐसी किसी भी हरकत का कोई भी विरोध नहीं किया। नतीजा यह हुआ कि पुलिस और फिर प्रशासन से होते हुए सत्‍ता के गलियारों में भी ऐसे लोगों की तादात बढ़ने लगी। के विक्रमराव जैसे लोगों ने अपने ओछे स्‍वार्थों के लिए तो पत्रकारिता का पिण्‍ड-दान तक करने की भरसक कोशिश कर दी। और जो आज बड़े और वरिष्‍ठ पत्रकार मौजूद हैं, वे या तो खामोश रहते हैं या फिर अपने नये फार्म हाउस में ऐश करते रहते हैं। कई-कई निजी मकान होने के बावजूद वे सरकारी मकान कब्‍जाये रहते हैं। और जो गम्‍भीर लोग हैं, उन्‍होंने नयी पीढ़ी से दूरी ही बना ली है। वजह है, अहंकार।

लेकिन के विक्रमराव द्वारा बनायी गयी इस नयी मालामाल धारा और नयी चकाचौंध की परम्‍परा को मजबूत किया हेमंत तिवारी ने। और विक्रमराव को दूध की मक्‍खी की तरह निकाल फेंक डाला। विक्रमराव ने तो अपने संगठन को जेबी संगठन बनाने के लिए सारे बटन खोल दिये, जबकि हेमंत तिवारी ने उप्र मान्‍यताप्राप्‍त पत्रकार समिति जैसे जिम्‍मेदार संगठन में फर्जी लोगों की घुसपैठ शुरू कर दी, और पत्रकार के साथ दलाल, ठेकेदार, लम्‍पट और पूंजीपतियों को मिला कर पत्रकारिता की शक्‍ल ही बदरंग कर दी। आज हालत यहां तक पहुंच चुकी है करीब एक हजारी पत्रकारों वाली की कमेटी के मठाधीश बने बैठे हैं हेमंत तिवारी। इसके बावजूद कि इस समिति के अध्‍यक्ष का चेहरा और चरित्र एक उस व्‍यक्ति की तरह है, जो कभी भी शराब पीकर सड़क पर हंगामा कर सकता है, बदले में खुद ही बुरी तरह पिट जाता है। उसकी हिमाकत ही तो है कि वह पुलिस के आला अफसरों को सरेआम गाली दे सकता है, सरोजनी नगर थाना के इंस्‍पेक्‍टर को पीट कर उसकी वर्दी फाड़ सकता है, और जब उसकी बदतमीजी का विरोध क्षेत्र का सीओ करता है, तो हेमंत तिवारी का मुंहलगा एडीजी अरविंद जैन उस सीओ को सरेआम बेइज्‍जत कर उसको सस्‍पेंड कर देता है। यूपी की एसटीएफ अपना काम भले न करे, लेकिन हेमंत तिवारी के लिए अपने पलक-पांवड़े बिछा देती है। अब तो चर्चा यहां तक है कि हेमंत तिवारी जितने शहरों में पीटे गये हैं, उसका रिकार्ड भविष्‍य में कोई भी नहीं बना पायेगा। चर्चाओं के मुताबिक हेमंत तिवारी वह टकसाल है, जहां फर्जी और नकली सिक्‍के ढाले जाते हैं।

आज एक बार फिर फैसला होना है कि हमारा नेतृत्‍व किस चरित्र और चेहरे का होगा। हालांकि अध्‍यक्ष पद पर सात लोग खड़े हैं, लेकिन असल लड़ाई हेमंत तिवारी और ज्ञानेंद्र शुक्‍ल के बीच ही है। सामान्‍य तौर पर तो यही माना जाता है कि हेमंत तिवारी को प्रदेश के नौकरशाह और सूचना विभाग के अपर मुख्‍य सचिव नवनीत सहगल का खुला आशीर्वाद है। कई घटनाओं में हेमंत तिवारी और नवनीत सहगल की करीबी जगजाहिर हो भी चुकी है। जबकि ज्ञानेंद्र शुक्‍ला सामान्‍य तौर पर शलभमणि त्रिपाठी के खेमे के और चहेते भी हैं। ज्ञानेंद्र शुक्‍ल के बारे में केवल इतनी ही जानकारी है कि ज्ञानेंद्र शुक्‍ला पढ़े-लिखे और शालीन होने के साथ ही साथ पत्रकारिता के सच्‍चे सेनानी हैं। जबकि शलभमणि त्रिपाठी पत्रकार से राजनीति होते हुए सरकारी नौकरी बजा रहे हैं। फिलहाल तो मुख्‍यमंत्री के सूचना सलाहकार की कुर्सी सम्‍भाले हुए हैं शलभमणि त्रिपाठी। एक दौर हुआ करता था कि शलभ की आवाज और उसकी तेजी किसी भी पत्रकार में उर्जा भर देती थी। राजनीति में आने के बाद शलभ में कई बदलाव जरूर आये हैं, लेकिन मित्रों के सगे माने जाते हैं शलभ।

ऐसी हालत में जन-चर्चाओं को देखा जाए तो अध्‍यक्ष पद का चुनाव अब हेमंत तिवारी अथवा ज्ञानेंद्र शुक्‍ला के बीच ही नहीं होगा, बल्कि सच यही है कि यह उन दोनों खेमों का युद्ध होगा, जिसमें एक ओर नवनीत सहगल का खेमा होगा जबकि दूसरी ओर शलभमणि त्रिपाठी का खेमा।

अब इस रामायण अथवा देवासुर संग्राम के भविष्‍य का आंकलन के लिए थोड़ा अतीत व धर्म के साथ ही साथ जन-मनोस्थितियों का आंकलन करना होगा। मसलन, सतयुग और त्रेता में सत्‍य का युद्ध सत्‍य के साथ हुआ था। इस युद्ध में सत्‍य की जीत हो गयी थी।

द्वापर में सत्‍य का युद्ध असत्‍य के साथ हुआ था, और इस युद्ध में असत्‍य को मुंह की खानी पड़ी थी।

आज फिर वही दोराहा बन गया है। इस बार पत्रकारों को एक फैसलाकुन कदम उठाना ही होगा कि उसका फैसला किसका मुंह तोड़ देगा। सत्‍य का या फिर असत्‍य का। अच्‍छी बात यह है कि इस समिति के दीगर पदों पर कुलसुम तलहा, दया बिष्‍ट और तमन्‍ना फरीदी जैसी महिलाओं ने बाकायदा अपनी ताल ठोंक दी है। भरत सिंह, नावेद और कामरान जैसे कई नौजवान भी मैदान में हैं। हमें उनका इस्‍तकबाल करना ही होगा।

तो आइये, मगर निवेदन वही है कि इस बार बहुत खूब-सोच समझ कर मोहर लगाइयेगा। कहीं ऐसा न हो जाए कि हम फिर दो साल तक सिर्फ अपनी छाती और खोपड़ी पीटते ही रह जाएं।